Important Constitutional Amendments महत्वपूर्ण संविधान संशोधन के तहत आपको अब तक होने वाले सभी महत्वपूर्ण संविधान संशोधन के बारे में संक्षिप्त में परिचय दिया जायेगा l
प्रथम संविधान संशोधन
प्रथम संविधान (Constitutional) संशोधन(amendments) 1951 में किया गया l
इसके अंतर्गत अनुच्छेद 15, 19, 85, 87, 174, 176, 341, 342, 372, 376, 31A, 31B में परिवर्तन किया गया l
इसके अंतर्गत नौवीं अनुसूची को संविधान में जोड़ा गया l – Most Important Amendments
संशोधन(amendments) के प्रमुख विषय इसके अंतर्गत निम्नलिखित संशोधन किए गए
मौलिक अधिकारों में समानता स्वतंत्रता तथा संपत्ति को सामाजिक हित में सीमित किया गया l
राज्यों द्वारा पारित भूमि सुधार कानूनों को नवी सूची में रखकर न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया l
यह संशोधन(Constitutional) संघ तथा राज्य की व्यवस्थापिकाओं के अधिवेशन, न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा सीटों के आरक्षण से संबंधित है l
दूसरा संविधान संशोधन Second constitutional amendment
इसके अंतर्गत अनुच्छेद 81 में परिवर्तन किया गया l
यह अनुच्छेद लोकसभा की संरचना से संबंधित है l
संशोधन (Constitutional Amendments) के द्वारा यह व्यवस्था की गई कि लोकसभा में राज्यों के अधिक से अधिक 530 सदस्य ही हो सकते हैं l
20 सदस्य केंद्र शासित प्रदेशों से होंगे l
इसके अलावा राष्ट्रपति दो सदस्यों को जो कि आंग्ल इंडियन का प्रतिनिधित्व करते हो का मनोनयन कर सकता है l
इस प्रकार से लोकसभा के अधिकतम कुल सदस्य संख्या 552 हो गई l
राज्यों को जनसंख्या के अनुपात में लोकसभा सीटों का वितरण किया गया है l
हालांकि यह छोटे राज्यों के लिए लागू नहीं होता जैसे 60 लाख से कम आबादी वाले राज्य l
उदाहरण के लिए सिक्किम जिसकी आबादी 6.10 लाख है को लोकसभा में 1 सीट दी गई है l
सर्वोच्च न्यायलय ने निजी सम्पति के अधिग्रहण पर सरकार द्वारा अधिगृहित किये जाने पर मुआवजा देने का आदेश दिया l इस समस्या का समाधान निकलने के लिए चौथा संविधान(Constitutional) संशोधन किया गया l
संविधान के अनुच्छेद 31(2) में इससे सम्बंधित सशोधन(amendment) किया गया l
संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है? l संविधान एक जीवंत दस्तावेज के इस अध्याय में हम जानेंगे की कैसे भारतीय संविधान कठोर है l कठोर होने के साथ साथ यह लचीला भी है l
संविधान समाज का आईना होता है l समाज की इच्छाओं और आकांक्षाओं को संविधान में दर्ज किया जाता है l भारतीय संविधान एक कठोर संविधान होने के साथ-साथ लचीला भी है l यह एक लिखित दस्तावेज है l जिसे समाज के प्रतिनिधि तैयार करते हैं l भारतीय संविधान 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन में बनकर तैयार हुआ l 26 नवंबर 1949 को संविधान को अंगीकृत किया गया l 26 जनवरी 1950 को इसे लागू किया गया l
भारतीय संविधान क्यों जीवंत दस्तावेज है?
यह परिवर्तनशील है l
यह स्थाई या गतिहीन नहीं है l
समय की आवश्यकता के अनुसार इसके प्रावधानों को संशोधित किया जाता है l
संशोधनों के पीछे राजनीतिक सोच प्रमुख नहीं बल्कि समय की जरूरत प्रमुख है l
भारतीय संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया
संविधान में संशोधन की प्रक्रिया केवल संसद ही प्रारंभ कर सकती है l
भारतीय संविधान में संशोधन की पूरी प्रक्रिया को संविधान के अनुच्छेद 368 में समझाया गया है l
संशोधन करने का तात्पर्य यह नहीं है कि संविधान की मूल संरचना के ढांचे में परिवर्तन किया जा सके l
संशोधनों के मामले में भारतीय संविधान लचीला और कठोर दोनों का मिश्रण है l
1950 से लेकर अब तक कुल 104 संविधान संशोधन हो चुके हैं l
104वाँ संविधान संशोधन अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण की अवधि को बढ़ा कर 2030 तक कर दिया गया है l
अनुसूचित जाति और जनजाति और एंग्लो इंडियन के आरक्षण का प्रावधान अनुच्छेद 334 में किया गया है l
इसके लिए 126 संविधान संशोधन विधेयक पारित हुए हैं l
124 वां संविधान संशोधन विधेयक सामान्य वर्ग को 10% आरक्षण देने का प्रावधान करता है l
इस बिल में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण दिया गया है l
संशोधन विधेयक के मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार के लिए भेजने का अधिकार नहीं है l
संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है?
संविधान में संशोधन करने के लिए कई प्रकार के तरीके अपनाए जाते हैं l भारतीय संविधान में संशोधन के तीन तरीकों का वर्णन किया गया है l
पहला संसद में सामान्य बहुमत के आधार पर अनुच्छेदों में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार संशोधन किया जा सकता है l
दूसरा संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग विशेष बहुमत के आधार पर संविधान में संशोधन का प्रस्ताव लाया जाता है l यह प्रक्रिया अनुच्छेद 368 के अनुसार होती है l
तीसरा विशेष बहुमत और कुल राज्यों के आधी विधायकों के सहमति के साथ अनुच्छेद 368 की प्रक्रिया का पालन करते हुए किया जाता है l इन तीनों ही प्रक्रिया में अलग-अलग विषय आते हैं l संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है? आइये नीचे दिए गए फ्जोलो चार्ट से समझते है:
भारतीय संविधान संशोधनों के प्रकार
संविधान में किए गए कुछ ऐसे संशोधन होते हैं जो प्रशासनिक दृष्टिकोण से किए जाते हैं l यह संशोधन बहुत ही मामूली या कम महत्व के होते हैं परन्तु प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक होते हैं l इन्हें प्रशासनिक संशोधन कहा जाता है l वही बात करें दूसरे प्रकार के संशोधन की संविधान की व्याख्या से संबंधित संशोधन होते हैं l तीसरे राजनीतिक आम सहमति से उत्पन्न संशोधन होते है l भारतीय संविधान में यह तीन प्रकार के संशोधन हुए है l
भारतीय संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है? दुनिया के लिए ये प्रश्न काफी महत्वपूर्ण है ? फ्रांस जैसे लोकतान्त्रिक देश में 200 वर्षो में संविधान को 5 बार दोबारा से बनाया गया है l फ़्रांस में अंतिम संविधान 1958 में अस्तित्व में आया l निश्चित रूप से भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज है l
भारतीय संविधान में इतने संशोधन कैसे और क्यों हुए?
भारतीय संविधान का निर्माण वित्तीय विश्वयुद्ध के बाद हुआ था l
उस समय की परिस्थितियों के अनुसार संविधान सुचारू रूप से काम कर रहा था l
भविष्य में स्थितियों में बदलाव के लिए संविधान को सजीव बनाए रखने के लिए इसमें संशोधन का प्रावधान भी किया गया था l
हमारे संविधान निर्माता ने भविष्य की राह को आसान बनाने के लिए इसमें संशोधन के प्रावधान किए l
किसी भी लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह आवश्यक है कि समय के साथ उसमें कुछ संशोधन किए जाए l
समय के साथ समाज के विभिन्न पहलुओं में बदलाव आता है l
इसके साथ ही नई-नई आवश्यकताओं का जन्म होता है l
यही कारण है कि आवश्यकताओं के अनुसार संविधान में इतने सारे संशोधन किए गए l
भारतीय संविधान में 38वाँ 39वाँ और 42वाँ संविधान संशोधन विवादास्पद माना जाता है l
यह तीनों संशोधन आपातकाल के दौरान किए गए थे l
इन संशोधनों के दौरान विपक्षी पार्टियों के सांसद जेल में थे l
जिसके कारण सरकार को असीमित अधिकार मिल गए थे l
इन तीनों संशोधनों में व्यापक स्तर पर संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन करने की कोशिश की गई थी l ऐसे कई संशोधन जोड़े गए जिससे विवाद उत्पन्न हुआ l 43वाँ और 44 वाँ संविधान संशोधन के द्वारा 38वें 39वें और 42वें संविधान संशोधन के कई विवादास्पद संशोधनों को हटाया गया l
भारतीय संविधान एक जीवंत दस्तावेज होने के कुछ कारण
संविधान एक गतिशील दस्तावेज है l भारतीय संविधान का अस्तित्व 70 वर्षों से है l इस बीच यह संविधान अनेक तनाव से गुजरा है l भारत में इतने परिवर्तन होने के बावजूद भी संविधान अपनी गतिशीलता और बदलती हुई परिस्थितियों के अनुसार सामंजस्य के साथ सफलतापूर्वक कार्य कर रहा है l परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तनशील रहकर नई चुनौतियों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर रहा है l यही उसकी जीवंतता का प्रमाण है l समय के अनुसार विभिन्न परिस्थितियों में परिस्थितियां बदलने के कारण संविधान में संशोधन किए जाते हैं l यह सिर्फ एक जीवंत दस्तावेज से ही मुमकिन है l
भारतीय संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं किया जा सकता: संविधान में संशोधन कैसे किया जाता है? महत्वपूर्ण तथ्य
सर्वोच्च न्यायालय ने सन 1973 में केशवनंद भारती बनाम केरल सरकार के मामले में निर्णय दिया l इस निर्णय ने संविधान के विकास में सहयोग दिया जो निम्नलिखित है:
संविधान में संशोधन करने की शक्तियों की सीमा निर्धारित हुई l
यह संविधान की विभिन्न भागों के संशोधन की अनुमति देता है पर सीमाओं के अंदर l
संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन के बारे में सर्वोच्च न्यायलय का फैसला अंतिम होगा l
विधायिका संविधान के मूल संरचना को नहीं बदल सकती है l
संविधान के मूल ढांचे को बदलने का अधिकार केवल संविधान सभा को था l
मूल ढांचे में परिवर्तन करने का तात्पर्य है नया संविधान लिखना l
स्थानीय शासन के इस अध्याय में पंचायती राज की संरचना, कार्य, और महत्त्व पर चर्चा की गयी है l राज्य वित्त आयोग का स्थानीय शासन में योगदान l दिन प्रतिदिन के राजनितिक निर्णय और कार्यों में इसकी बढ़ती भूमिका विकेंद्रीकरण का नया पर्याय बन चुकी है l
भारत में यह मत रहा है कि स्थानीय निकाय केंद्र सरकार और राज्य सरकार की शक्तियों को कम करता है l यही कारण है कि भारत में स्थानीय शासन को जो महत्व मिलना चाहिए वह अब तक नहीं मिल पाया है l भारत में स्थानीय शासन के संरचना का मॉडल कुछ इस तरीके का है l स्थानीय शासन के पास अपने खुद के आय के संसाधन कम है l आय के सीमित संसाधन होने के बावजूद स्थानीय शासन का महत्व कम नहीं होता है l ऐसे बहुत से मौके आए जब यह देखने में आया कि स्थानीय स्तर पर कई मुद्दों को निपटाया गया l
स्थानीय शासन क्या और क्यों?
गाँव और जिला स्तर की शासन को स्थानीय शासन कहते हैं l
स्थानीय शासन आम आदमी के सबसे नजदीक का शासन है l
इसका मुख्य विषय है: आम नागरिक की समस्याएं और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी l
इस प्रणाली की मान्यता है कि स्थानीय ज्ञान और स्थानीय हित लोकतांत्रिक फैसला लेने के अनिवार्य घटक है l
कारगर और जनहितकारी प्रशासन के लिए भी यह जरूरी है l
स्थानीय शासन का फायदा यह है कि यह लोगों को सबसे नजदीक होता है l
इस कारण उनकी समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से कम खर्चे में हो जाता है l
लोकतंत्र का प्रतीक: स्थानीय शासन
लोकतंत्र का अर्थ होता है सार्थक भागीदारी और जवाबदेही l जीवन तर मजबूत साथ स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्य पूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है l जो काम स्थानीय स्तर पर किए जा सकते हैं वह काम स्थानीय लोगों तथा उनके प्रतिनिधियों के हाथ में ही रहने चाहिए l आम जनता राज्य सरकार या केंद्र सरकार से कहीं ज्यादा स्थानीय समस्याओं और आवश्यकताओं से परिचित होती है l
भारत में स्थानीय शासन की शुरुआत
भारत में स्थानिक शासन की शुरुआत प्राचीन काल से ही हो चुकी थी l
प्राचीन भारत में अपना शासन खुद चलाने वाले समुदाय सभा के रूप में मौजूद थे l
आधुनिक समय में इसकी शुरुआत ब्रिटिश काल में वायसराय लॉर्ड रिपन के समय 1882 से होती है l
इस समय इसका नाम मुकामी बोर्ड था l भारत सरकार अधिनियम 1919 के लागू होने के पश्चात अनेक ग्राम पंचायतें बनी l
जब संविधान निर्माण हुआ तब स्थानीय शासन का विषय राज्यों को सौंप दिया गया l
संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अंतर्गत इस को सम्मिलित किया गया था l
स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन का गठन
1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम के द्वारा इस क्षेत्र में एक प्रयास किया गया था l ग्रामीण विकास कार्यक्रम के तहत एक त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की सिफारिश की गई थी l
सबसे पहले आजाद भारत में पंचायती राज की परिकल्पना को बलवंत राय मेहता समिति के सिफारिशों के परिपेक्ष्य में देखा जा सकता है l
बलवंत राय मेहता समिति ने जो सुझाव दिए उसे 1 अप्रैल 1958 से लागू कर दिया गया l
2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में सबसे पहले स्थानीय शासन को लागू किया गया l
इसके अगले ही साल आंध्र प्रदेश ने और फिर उसके अगले साल असम तमिलनाडु और कर्नाटक ने पंचायती राज को यहां लागू किया l
परंतु सभी राज्यों ने इसे लागू नहीं किया l
कुछ राज्यों जैसे महाराष्ट्र और गुजरात में स्थानीय शासन पर कार्य किया गया l
स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन की प्रक्रिया की शुरुआत सन 1987 सभी राज्यों के लिए जोर पकड़ने लगी l
सन 1987 के बाद स्थानीय शासन की संस्थाओं के पुनरावलोकन की शुरुआत हुई l
स्थानीय शासन के अंतर्गत विषय
इसके अंतर्गत कुछ विषयों को शामिल किया गया है l इन विषयों को राज्य की राज्य सूची से लिया गया है l कुल मिलाकर 29 विषय चिन्हित किए गए हैं जिनको इसमें के अंतर्गत रखा गया है l
73वाँ और 74वाँ संविधान संशोधन
सन 1989 में पी के थुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की l संविधान का 73वाँ और 74वाँ संशोधन सन 1992 में किया गया l संशोधन के द्इवारा संविधान में 11वीं और 12वीं अनुसूची जोड़ी गयी l सके अंतर्गत 73वें संशोधन के अंतर्गत गांव के स्थानीय शासन को मान्यता दी गई l जबकि 74वें संविधान संशोधन के तहत शहरी स्थानीय शासन को मान्यता प्रदान की गई l
ग्रामीण स्थानीय शासन को पंचायती राज भी कहा जाता है l आइए विस्तार से पंचायती राज अर्थात ग्रामीण स्थानीय शासन की संरचना की चर्चा करते हैं l
पंचायती राज की संरचना को समझने के लिए हमें इसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करनी होगी l जो निम्नलिखित बिंदुओं के तहत समझे जा सकते हैं :
त्रिस्तरीय ढांचा
चुनाव प्रणाली
चुनाव में आरक्षण
राज्य निर्वाचन आयोग
राज्य वित्त आयोग
त्रिस्तरीय ढांचा
संविधान संशोधन होने के पश्चात पंचायती राज की संरचना की एक निश्चित संरचना अस्तित्व में आई l पंचायती राज की संरचना को तीन विभिन्न चरणों में बांटा गया है l इसके आधार पर ग्राम सभा, द्वितीय पायदान पर ब्लॉक समिति और तृतीय पायदान पर जिला पंचायत होती है l पंचायती राज की संरचना पिरामिड नुमा बनाई गई है l जिसके पायदान पर ग्रामसभा और शीर्ष पर जिला परिषद होती है l
चुनाव प्रणाली
पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता के द्वारा किए जाते हैं l
निर्वाचित सदस्यों की कार्यकाल की अवधि 5 वर्ष की होती है l
पंचायती राज की संस्थाओं के तीनों अस्त्रों के चुनाव का नियंत्रण एवं निरीक्षण राज्य निर्वाचन आयोग करता है l
आरक्षण की व्यवस्था
पंचायती राज में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित की गई है l
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया गया है l
यह राज्य सरकार पर निर्भर है वह चाहे तो अन्य पिछड़ा वर्ग को भी आरक्षण दे सकती है l
आरक्षण के लाभ के फलस्वरूप यह देखने में आया पंचायती राज की राजनीति में महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई है l
प्रारंभ में भारत के अनेक प्रदेशों की आदिवासी जनसंख्या को स्थानीय शासन से 73वें संविधान संशोधन के प्रावधानों से अलग रखा गया था l लेकिन 1996 में कानून बनाकर उनको भी पंचायती राज के प्रावधानों में सम्मिलित किया गया l
राज्य निर्वाचन आयोग
राज्य निर्वाचन आयोग प्रत्येक राज्य में होता है l
भारत के निर्वाचन आयोग से राज्य निर्वाचन आयोग का कोई संबंध नहीं है l
हालांकि राज्य निर्वाचन आयोग भी एक संवैधानिक संस्था है l
इसका गठन संविधान के अनुच्छेद 243 K के तहत किया गया है l
इसकी स्थापना सन 1994 में की गई थी l
राज्य निर्वाचन आयोग में एक आयुक्त और एक सचिव होता है l
इसका प्रमुख राज्य निर्वाचन आयुक्त होता है
राज्य निर्वाचन आयुक्त कार्यकाल
राज्य निर्वाचन आयुक्त का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है l
वह अपने पद पर 65 वर्ष की आयु तक बना रह सकता है l
5 वर्ष या 65 वर्ष आयु जो भी पहले हो उसके अनुसार पद छोड़ना पड़ता है l
पद पर रहते हुए राज्य निर्वाचन आयुक्त के कार्यकाल में कोई कटौती नहीं की जा सकती l
राज्य के निर्वाचन आयुक्त को हटाने की प्रक्रिया उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान है l
मुख्य कार्य
राज्य निर्वाचन आयोग किसी राज्य में स्थानीय शासन के निकायों के चुनाव करवाता है l
स्थानीय शासन के अंतर्गत पंचायती राज और नगर पालिकाओं के चुनावों पर अधीक्षण निर्देशन और नियंत्रण रखता है l
राज्य वित्त आयोग
सन 1993 से संविधान के अनुच्छेद 280 I(आई) के तहत सभी राज्यों में वित्त आयोग का गठन किया जाएगा l वित्त आयोग में एक अध्यक्ष और 4 सदस्य होते हैं l जिसमें 2 सदस्य पूर्णकालिक और दो अंशकालिक होते हैं l वित्त आयोग का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है l प्रत्येक 5 वर्ष के पश्चात वित्त आयोग का गठन किया जाता है l
वित्त आयोग के प्रमुख कार्य
वित्त आयोग प्रदेश में मौजूद स्थानीय शासन की संस्थाओं की आर्थिक स्थिति का जायजा लेता है l
यह आयोग प्रदेश और स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच वित्तीय संसाधनों के बंटवारे पर सुझाव देता है l
दूसरी तरफ शहरी और ग्रामीण स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच राज्य के बंटवारे का पुनरावलोकन करेगा l
इसकी पहल के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया है कि ग्रामीण स्थानीय शासन को धन आवंटित करना राजनीतिक मसला ना बने l
यह राज्य और स्थानीय निकायों के बीच वित्तीय संतुलन बनाने की कोशिश करता है l
राज्य वित्त आयोग की प्रमुख सिफारिशें
राज्यों के द्वारा लगाए गए करो, टोल टैक्स और अन्य प्रकार के करो के द्वारा प्राप्त आय को स्थानीय निकायों और राज्यों के बीच आवंटन की सिफारिश करता है l
राज्यों के आय में से कितना भाग स्थानीय निकायों को दिया जा सकता है
इसकी सिफारिश राज्य वित्त आयोग करता है l
स्थानीय निकायों को कितना अनुदान दिया जाए इस पर भी सुझाव राज्य वित्त आयोग देता है l
भारत में 74वें संविधान संशोधन का लागू होना l
74वें संविधान संशोधन शहरी निकायों के लिए किया गया है l शहरों में नगर निगम और नगर पालिकाओं के द्वारा इसे लागू किया जाता है l सन 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 31.16 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में निवास करती है l भारत की जनगणना 2011 के अनुसार शहरी परिभाषा के लिए निम्नलिखित बिंदुओं को जरूरी माना गया है:
कम से कम 5000 की जनसंख्या हो l
काम करने वालों में कम से कम 75% लोग गैर कृषि कार्य में लगे हो l
जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो l
शहरी निकाय के कुछ आँकड़ें
भारत में जनगणना 2011 के अनुसार 3842 स्थानीय नगर निकाय हैं l
2011 के आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 4041 नगरपालिकाएँ हैं l
शहरी भारत में 205 नगर निगम 3255 नगरपालिका है l
हर 5 वर्ष पश्चात इन निकायों के लिए चुनाव किया जाता है l
स्थानीय निकाय के चुनाव के कारण निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है
स्थानीय शासन के चुनाव में लाखों प्रतिनिधि जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुने जाते है l इसमें महिलाओं और अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए सीटे आरक्षित होती है l स्थानीय शासन में महिलाओं को आरक्षण मिलने से उनकी राजनितिक नेतृत्व की क्षमता का पता चलता है l
संघवाद नोट्स कक्षा 11 राजनीति विज्ञान के इस अंक में आपको संघवाद अध्याय के सभी टॉपिक्स जैसे केंद्र सरकार और राज्य सरकार के विभिन्न सम्बन्ध के बारे में नोट्स मिलेंगे l राज्य सूची और संघ सूची के साथ समवर्ती सूची को विस्तार से बताया गया है l
इसका अर्थ होता है संगठित रहने का विचार l संघ का अर्थ होता है संगठन और वाद का अर्थ होता है विचार तो इस प्रकार से संघवाद का अर्थ बना साथ रहने का विचार l
यह एक प्रकार की संस्थागत प्रणाली है l जिसमें दो स्तर की राजनीतिक व्यवस्थाओं को सम्मिलित किया जाता है l
इसमें एक केंद्रीय स्तर की सरकार होती है और दूसरी राज्य स्तर की सरकारें होती हैं l
केंद्रीय सरकार पूरे देश के लिए शासन और नियम तय करती है l
जिसमें राष्ट्रीय महत्व के विषय होते हैं l
राज्य सरकारें अपने राज्य में या विशेष क्षेत्र में होती हैं l जिसमें राज्य को महत्व दिया जाता है l
सिर्फ राज्य के विषय होते हैं जिस पर राज्य की जनता के लिए उनके हित के लिए कार्य किया जाता है l
उदाहरण के लिए भारत में तीन प्रकार की सूचियाँ बनाई गई हैं l
संघ सूची केंद्रीय सरकार के लिए, राज्य सूची राज्य सरकार के लिए
समवर्ती सूची जिसमें केंद्र और राज्य दोनों प्रकार के सरकारी कानून बना सकती हैं l
भारतीय संविधान में संघवाद
संविधान के अनुच्छेद अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है l भारत का संघवाद विश्व के अन्य देशों के संघवाद से बिल्कुल अलग है भारतीय संविधान में federation शब्द का कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है l बल्कि उसकी जगह यूनियन(Union) शब्द का प्रयोग किया गया है l प्रारंभ में भारत में कुल 14 राज्य थे l नीचे मानचित्र में देखे l
भारत को 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा गया है l
प्रारंभ में जब भारत आजाद हुआ था तब उसमें 14 राज्य थे l
जम्मू और कश्मीर विशेष दर्जे के तहत एक पूर्ण राज्य था l
धारा 370 हटाने के बाद उसका विभाजन 2 केंद्र शासित प्रदेशों लद्दाख तथा जम्मू और कश्मीर में कर दिया गया है l
भारत के अलावा दुनिया के ऐसे कई देश है l
जहाँ पर संघवाद अस्तित्व में है इस राजनीतिक व्यवस्था का उपयोग मुख्य रूप से वेस्टइंडीज, नाइजीरिया, अमेरिका और जर्मनी जैसे देशों में किया जाता है l लेकिन इन देशों में संघवाद भारतीय संघवाद से बिल्कुल अलग प्रकृति का है l
भारतीय संघवाद की विशेषताएँ
विश्व के देशों में संघवाद में मुख्य रूप से दो स्तर की सरकारें हैं l वहीं पर भारत में संघवाद के रूप में तीन स्तर की सरकारी कार्य करते हैं l पहले स्तर पर केंद्रीय सरकार जो काफी शक्तिशाली हैं दूसरे स्तर पर राज्य सरकारें और तीसरे स्तर पर स्थानीय सरकारें कार्य करती हैं l भारतीय संघवाद की विशेषता मुख्य रूप से लिखित संविधान में दर्ज है l भारत में शक्तियों का विभाजन संविधान के अनुसूची 7 में किया गया है l जिसमें संघ सूची राज्य सूची और समवर्ती सूची के साथ-साथ केंद्र सरकार को अवशिष्ट शक्तियां प्रदान की गई है l भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका है जो राज्य और केंद्र तथा राज्यों के बीच विवाद का निपटारा करती है l भारतीय संघवाद में संविधान को सर्वोच्चता दी गई हैं l
भारतीय संविधान में संघवाद की शक्ति विभाजन
भारतीय संघवाद में तीन प्रकार की सरकारें हैं l संघीय सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय सरकार l
स्थानीय स्तर की सरकारों का निर्माण 74वें और 73वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुसूची 12 और अनुसूची 11 के तहत की गई l
संविधान के संघवाद के अनुच्छेदों में संघ और राज्यों के बीच विधाई शक्तियों के वितरण की घोषणा की गई है l
संघीय सरकार के पास राष्ट्रीय महत्व के विषय जबकि प्रांतीय सरकार के पास राज्य स्तर के विषय हैं l
संविधान की सर्वोच्चता
भारतीय संविधान में संघवाद के ढांचे में चाहे वह केंद्र शासक शासन हो या राज्य शासन संविधान को सर्वोपरि माना गया है l
संघवाद की सभी सरकारे संविधान के दायरे में रहकर ही काम करेंगी l
देश में केंद्र तथा राज्य सरकारों के बीच शक्तियों को 3 भागो के तहत बांटा गया है l
संविधान तीन स्तर की सरकारों की व्यवस्था करता है केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय सरकार l
स्वतंत्र न्यायपालिका के द्वारा राज्य और केंद्र की शक्तियों में विवाद होने पर पंच की भूमिका निभाने के लिए स्वतंत्र रखा गया है l
भारतीय संविधान में संसद संशोधन कर सकती है परंतु उसके मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती l
संविधान में एकात्मकता के लक्षण
भारतीय संघवाद में कुछ ऐसे लक्षण है l जिससे यह प्रतीत होता है कि या एकात्मक संघवाद की तरह कार्य करती है l जो निम्न है:
एकल नागरिकता शक्ति विभाजन में केंद्र के पक्ष में ज्यादा शक्तियों का बंटवारा l
संघ और राज्यों के लिए एक ही संविधान
स्वतंत्र और एकीकृत न्यायपालिका
आपातकाल की स्थिति में केंद्र सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान करना
राज्य में राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति
एकल प्रशासकीय व्यवस्था (संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा आईएएस आईपीएस और आईआरएस)
संविधान संशोधन में संघीय सरकार अर्थात केंद्र सरकार को महत्व
केंद्र सरकार को अधिक शक्तियाँ देने के कारण
भारत देश एक बहुत ही विशाल और अनेकानेक विविधताओं से परिपूर्ण है l देश में सामाजिक आर्थिक कई प्रकार की समस्याएं हैं l संविधान निर्माता शक्तिशाली केंद्रीय सरकार के माध्यम से उन विविधताओं और समस्याओं का निपटारा करना चाहते थे l जब देश स्वतंत्र हुआ उस समय 565 रियासतें और ब्रिटिश भारत के 17 प्रांत थे l इन सब को एकजुट करना और एकता के सूत्र में बांधे रखना एक बड़ी चुनौती थी l यही कारण है कि भारतीय संघीय व्यवस्था में केंद्र सरकार को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है l
शक्तियों का विवाद: केंद्र-राज्य संबंध
संविधान में केंद्र को अधिक शक्तियां दिए जाने के कारण केंद्र राज्य संबंध में अक्सर तनाव बना रहता है l ऐसे कई राज्य हैं जो अधिक अधिकार और स्वायत्तता की मांग करते हैं l राज्य अपने हितों के लिए कई प्रकार से मांगे करते हैं l जो निम्न प्रकार है:
स्वायत्तता की मांग
राज्यपाल की भूमिका तथा राष्ट्रपति शासन
नए राज्यों की मांग
अंतर्राज्यीय विवाद
विशिष्ट प्रावधान
स्वायत्तता की मांग: संघवाद की प्रमुख समस्या
ऐसे अनेक मौके आए हैं जब राज्यों और राजनीतिक दलों में राज्यों को केंद्र के मुकाबले अधिक स्वायत्तता देने की मांग उठी है l जिसमें वित्तीय स्वायत्तता प्रशासनिक सेवाएं तथा सांस्कृतिक और भाषाई स्वायत्तता की मांग है l
वित्तीय स्वायत्तता: राज्यों के आय के अधिक साधन होने चाहिए तथा संसाधनों पर राज्यों का नियंत्रण होना चाहिए ऐसा राज्यों की मांग है l
प्रशासनिक स्वायत्तता: शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में किया जाना चाहिए और राज्यों को अधिक महत्व के अधिकार और शक्तियां दी जानी चाहिए l
सांस्कृतिक और भाषाई अधिकार: तमिलनाडु में हिंदी विरोध में पंजाब राज्य में पंजाबी और संस्कृत के प्रोत्साहन की मांग समय-समय पर उठती रही है l वहीं पूर्वोत्तर के राज्य अपनी संस्कृति को बनाए रखने की वकालत करते हैं l
राज्यपाल की भूमिका तथा राष्ट्रपति शासन
केंद्र सरकार राज्य सरकारों की सहमति के बिना ही राज्य में राष्ट्रपति शासन राज्यपाल के द्वारा लागू कर सकती हैं l
अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है l
केंद्र सरकार के द्वारा अक्सर अनुच्छेद 356 का दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है l
नए राज्यों की माँग
भारतीय संघवाद व्यवस्था में नए राज्य बनाने की मांग आजादी के समय से ही उठती रही हैं l
यही कारण है आजादी के समय मात्र 14 राज्य हुआ करते थे
जबकि 2020 में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं l
देश की विविधता और विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जरूरी था कि राज्यों का पुनर्गठन किया जाए l
समय-समय पर राज्यों का पुनर्गठन होता आया है l
अंतर्राज्यीय विवाद
संघीय व्यवस्था में संघवाद के अनके विवादो ने जन्म लिया l
दो या दो से अधिक राज्यों के बीच आपसी विवाद के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं l
भारत में विभिन्न मुद्दों जैसे नदी जल बंटवारे, सीमा विवाद आदि को लेकर राज्यों के बीच लंबे समय से विवाद देखने को मिलता है l
कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच बेलगांव को लेकर विवाद लंबे समय से बना हुआ है l
वहीं सर्वोच्च न्यायालय में कर्नाटक और तमिलनाडु में कावेरी जल को लेकर विवाद लंबे समय से चला आ रहा है l
संघवाद के विशिष्ट प्रावधान
पूर्वोत्तर के राज्य तथा जम्मू-कश्मीर के लिए विशिष्ट प्रावधान किए गए हैं l
संविधान के अनुच्छेद 370 द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशेष स्थिति प्रदान की गई थी l
जैसे अलग संविधान अलग ध्वज
भारतीय संसद राज्य सरकार की सहमति के बिना वहां पर आपातकाल नहीं लगा सकती है l
आदि अधिकार जम्मू और कश्मीर को दिए गए इसका अन्य राज्य विरोध करते हैं l
संविधान के अनुच्छेद 371 से 371(झ) तक में नागालैंड असम मणिपुर आंध्र प्रदेश
सिक्किम मिजोरम अरुणाचल प्रदेश गोवा राज्य को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गई है l
हालांकि गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया है l
वह अन्य राज्यों की तरह ही एक पूर्ण राज्य बन गया है l
न्यायपालिका नोट्स कक्षा 11 राजनीति विज्ञान के अंतर्गत आप न्यायपालिका की संरचना, कार्य और शक्तियों, जनहित याचिकाएँ, जनहित याचिकाओं के प्रभाव का अध्ययन करेंगे l न्यायपालिका नोट्स कक्षा 11 पीडीऍफ़ नोट्स यहाँ से डाउनलोड करे l
न्यायपालिका (Judiciary)
सरकार का एक महत्वपूर्ण अंग है l भारत का सर्वोच्च न्यायालय वास्तव विश्व के सबसे शक्तिशाली न्यायालयों में से एक है l 1950 से ही न्यायपालिका ने संविधान की व्याख्या और सुरक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है l न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की रक्षा करके भारत में लोकतंत्र को मजबूत बनाती है l
न्यायपालिका की स्वतंत्रता
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है सरकार के अन्य दो अंग विधायिका और कार्यपालिका न्यायपालिका के कार्य में किसी प्रकार की बाधा ना पहुंचाएं l
ताकि वह ठीक ढंग से न्याय कर सके सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णय में हस्तक्षेप ना करें l
न्यायधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें l
न्यायपालिका का स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं है कि न्यायपालिका स्वेच्छाचारी था और उत्तरदायित्व का अभाव रखती है l
यह देश के संविधान लोकतांत्रिक परंपरा और जनता के प्रति जवाबदेह हैं
न्यायपालिका की विशेषताएँ
न्यायपालिका विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है l
संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते के लिए विधायकों की स्वीकृति नहीं ली जाएगी l
न्यायाधीशों के कार्य और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती है l
अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है तो न्यायपालिका को उसे दंडित करने का अधिकार है l
संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है l जब वह उनको हटाने के प्रस्ताव पर विचार कर रही हो l
न्यायाधीशों की नियुक्ति: न्यायपालिका की कठिन प्रक्रिया
सर्वोच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वरा की जाती है l
मंत्रिमंडल राज्यपाल मुख्यमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश यह सभी न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं l
भारत की न्यायपालिका में मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में वर्षों से परंपरा बन गई है कि सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किया जाता है l
लेकिन इसके दो अपवाद भी हैं l 1973 ए. एन. रे को तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों के बावजूद मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया l
1975 में न्यायमूर्ति एम एच बेग को एक वरिष्ठ न्यायाधीश को पीछे छोड़ते हुए नियुक्त किया गया l
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है l
न्यायपालिका में नियुक्तियों के संबंध में वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद के पास है l वह नियुक्तियों को अंतिम रूप से आदेश देती हैं l
मंत्री परिषद न्यायाधीश की नियुक्ति तो कर सकती है पर उसे पद से हटा नहीं सकती है l
न्यायाधीश को अंतिम रूप से विधायिका के द्वारा ही हटाया जा सकता है l
भारत के सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया: महाभियोग
न्यायाधीशों को पद से हटाने की महाभियोग की प्रक्रिया भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के समान है l
न्यायाधीशों को पद से हटाने की प्रक्रिया बहुत ही कठिन है l
कदाचार साबित होने अथवा अयोग्यता की दशा में ही उन्हें पद से हटाया जा सकता है l
न्यायाधीश के विरुद्ध आरोपों पर संसद के एक विशेष बहुमत की स्वीकृति जरूरी होती है l
जब तक संसद के सदस्यों में आम सहमति ना हो तब तक किसी न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सकता l
उनकी नियुक्ति में कार्यपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका है परंतु उनको हटाने की शक्ति विधायिका के पास है l
महाभियोग की प्रक्रिया चलाने के लिए संसद के दोनों सदनों में से किसी में भी प्रस्ताव लाया जा सकता है
महाभियोग की प्रक्रिया पूरी करने के लिए उसे संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई मतों से पास होना आवश्यक
इस प्रकार से विधायिका और न्यायपालिका में शक्ति संतुलन किया गया है l
न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया महाभियोग पर : केस स्टडी
1991 में न्यायमूर्ति रामास्वामी पर आरोप लगा था l वे पंजाब और हरियाणा न्यायलय में मुख्य न्यायधीश थे l
पहली बार संसद के 108 सदस्यों ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने के लिए महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए l
इसके 1 वर्ष बाद 1992 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की एक उच्चस्तरीय जांच समिति जाँच की l
न्यायाधीश रहते सार्वजनिक धन का निजी उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने और
संवैधानिक नियमों को धज्जी उड़ाने के कारण नैतिक पतन तथा पद का जानबूझकर गंभीर दुरुपयोग करने का दोषी पाया l
इतने कठोर आरोपों के बाद भी रामास्वामी पर संसद में महाभियोग सिद्ध नहीं हो पाया l
महाभियोग के प्रस्ताव के पक्ष में सदन में मौजूद पर मतदान करने वाले सदस्यों के जरूरी दो-तिहाई मत पड़े l
लेकिन कांग्रेस पार्टी ने महाभियोग की वोटिंग के लिए सदन में मतदान में भाग नहीं लिया l
जिसके कारण महाभियोग प्रस्ताव को सदन की कुल सदस्य संख्या के आधे का समर्थन नहीं मिल पाया l
आप जानते हैं महाभियोग की प्रक्रिया को तभी पूरा माना जाएगा जब उसमें विशेष बहुमत के द्वारा पारित किया जाए l
न्यायपालिका की संरचना
भारत में न्यायपालिका की एकीकृत न्याय प्रणाली स्थापित की गई है l विश्व के अन्य देशों के विपरीत भारत में अलग से प्रांतीय स्तर पर न्यायपालिका की संरचना नहीं है l भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है l इसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय फिर उच्च न्यायालय और बाद में जिला न्यायालय है l जिला न्यायालय के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की अधीनस्थ न्यायालय आती हैं l न्यायपालिका की संरचना जिला स्तर पर भी विभाजित है l न्यायपालिका की संरचना को आइए इस फ्लो चार्ट के द्वारा सीखते हैं:
भारत में सर्वोच्च न्यायलय विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली न्यायालय में से एक है l वह संविधान द्वारा तय की गई सीमाओं के अंदर ही कार्य करता है l सर्वोच्च न्यायलय के कार्य और उत्तरदायित्व संविधान में दर्ज किए गए हैं l सर्वोच्च न्यायलय को खास किस्म का क्षेत्राधिकार प्राप्त है l सर्वोच्च न्यायलय ने समय समय पर संविधान की व्याख्या की है l सर्वोच्च न्यायलय संविधान के मूल ढांचे में कोई भी परिवर्तन करने की इजाजत नहीं देता है l सर्वोच्च न्यायलय ने न्यायिक सक्रियता के द्वारा मौलिक अधिकारों को गरीब और दमितों तक पहुचायां है l आइये फ्लोचार्ट के द्वारा सर्वोच्च न्यायलय के क्षेत्राधिकार को समझने की कोशिश करते हैं:
न्यायिक सक्रियता: जनहित याचिकाओं की शुरुआत
भारत में न्यायिक सक्रियता का दौर सन 1979 के दौरान देखने में आता है l इस दौरान न्यायपालिका ने खुद ही ऐसे कदम उठाए जिससे संविधान के अधिकार दमित और निचले तबके के लोगों तक पहुंच पाए l
भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका रही है l 1979 में इस बदलाव की शुरुआत करते हुए न्यायपालिका ने कैसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया l जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया था l क्योंकि इस मामले में जनहित से संबंधित एक मुद्दे पर विचार हो रहा था l अतः इसे और ऐसे अन्य मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया l
हुसैनारा खातून बनाम बिहार सरकार
सर्वप्रथम सन 1979 में समाचार पत्रों में विचाराधीन कैदियों के बारे में कुछ खबरें छपी l बिहार की जेलों में कैदियों को काफी लंबी अवधि से बंदी बना रखा जा रहा था l जिन अपराधों के लिए उन्हें गिरफ्तार किया गया था l यदि उसमें उन्हें सजा हो भी जाती तो भी वह इतनी लंबी अवधि के लिए कैदी नहीं बने रह सकते थे l इस खबर को आधार बनाकर एक वकील ने याचिका दायर की l सर्वोच्च न्यायालय ने यह मुकदमा चलाया यह पहली जनहित याचिका के रूप में प्रसिद्ध हुआ l इस मुकदमे को हुसैनारा खातून बनाम बिहार सरकार के नाम से जाना जाता है l ऐसे ही और अन्य जनहित याचिकाएँ के बारे में आपको बताते हैं l
कुछ प्रसिद्ध जनहित याचिकाएँ
हुसैनारा खातून बनाम बिहार सरकार (1979): बिहार में जेल में बंद कैदियों के लिए
सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन (1980): दिल्ली की तिहाड़ जेल में कैदियों पर हो रही प्रताड़ना के लिए
बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत सरकार (1984): गरीबों और दलितों के अधिकारों के लिए
न्यायिक सक्रियता(जनहित याचिकाओं) के सकारात्मक प्रभाव:
जनहित याचिकाओं (न्यायिक सक्रियता) का हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा l
न्यायिक सक्रियता के कारण व्यक्तियों को ही नहीं बल्कि विभिन्न समूह को भी अदालत जाने का अवसर मिला l
इसने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया l
जनहित याचिकाओं एक और लाभ यह हुआ कि कार्यपालिका उत्तरदाई बनने पर मजबूर हुई l
न्यायिक सक्रियता (जनहित याचिकाओं) के द्वारा चुनाव प्रणाली में भी सुधार हुए l स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के प्रयास में सुधार हुआ l
जनहित याचिकाओं के नकारात्मक प्रभाव
इससे न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ा है l
न्यायिक सक्रियता(जनहित याचिकाओं) से विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों के बीच का अंतर धुंधला हो गया l
न्यायालय ऐसी समस्या में उलझ गया जिसे कार्यपालिका को हल करना चाहिए l
इससे सरकार के तीनों अंगों के बीच पारस्परिक संतुलन रखना मुश्किल हो गया है l
न्यायिक सक्रियता से इस लोकतांत्रिक सिद्धांत को आघात पहुंच सकता है l
न्यायपालिका और अधिकार में संबंध
न्यायपालिका को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया है संविधान ऐसी दो विधियों का वर्णन करता है जिससे सर्वोच्च न्यायालय अधिकारों की रक्षा कर सकें
पहला यह अनेक रिट जैसे बंदी प्रत्यक्षीकरण परमादेश अधिकार पृच्छा उत्प्रेषण आदि जारी करके मौलिक अधिकारों को फिर से स्थापित कर सकता है l इसका विवरण संविधान के अनुच्छेद 32 में दिया गया है l
अनुच्छेद 226 के अनुसार उच्च न्यायालय को भी रिट जारी करने का अधिकार है l
दूसरा सर्वोच्च न्यायालय किसी कानून को गैर संवैधानिक घोषित कर उसे लागू होने से रोक सकता है l इसका विवरण संविधान के अनुच्छेद 13 में दिया गया है l
न्यायिक पुनरावलोकन: न्यायिक पुनरावलोकन सर्वोच्च न्यायालय के संभवतया सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है l
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिक ता जा सकता है l
यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो तो न्यायालय उसे गैर संवैधानिक घोषित कर रद्द कर सकता है l
हालांकि हमारे संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का उपयोग नहीं किया गया है l
संघीय संबंधों के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय अपने न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है l
जिससे शक्ति के बंटवारे की समस्या हल हो सकती है l यह केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के हितों के अतिक्रमण करने को भी रोकता है l
न्यायिक पुनरावलोकन के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को भी रोक सकता है l
न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों पर भी लागू होती है l
इसका मतलब यह हुआ कि न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों की और संविधान की व्याख्या कर सकती है l
न्यायपालिका और संसद
न्यायलय की सक्रियता से राजनीतिक व्यवहार बर्ताव से संविधान को ठेंगा दिखाने की प्रवृति पर अंकुश लगाया गया है l पहले जो विषय जैसे राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियां न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं आते थे l उन्हें भी अभी दायरे में लाया गया है l सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश दिए हैं l उदाहरण के लिए हवाला मामले नर्सिंग मामले पेट्रोल पंप के अवैध आवंटन अनेक मामलों में केंद्रीय जांच ब्यूरो को निर्देश दिए गए हैं कि राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जांच करें l
न्यायपालिका और विधायिका में टकराव
न्यायपालिका और विधायिका में टकराव के ऐसे कई मौके आए जब सर्वोच्च न्यायालय और संसद आमने-सामने आ गए l ऐसा ही एक मामला संपत्ति के अधिकार से जुड़ा हुआ है l जिसमें संसद के संविधान को संशोधित करने की शक्ति के संबंध में संसद और न्यायपालिका के बीच टकराव हुआ l संविधान लागू होने के तुरंत बाद संपत्ति के अधिकार पर संसद संसद ने रोक लगा दी थी l ऐसा उसने भूमि सुधारों के लिए किया था l न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती है l
संसद और न्यायपालिका के बीच विवाद के केंद्र में निम्नलिखित मुद्दे थे:
1967 से 1973 के बीच न्यायपालिका और संसद के बीच काफी विवाद रहे जो निम्न है:
भूमि सुधार कानून
निवारक नजरबंदी कानून
नौकरियों में आरक्षण संबंधी कानून
सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी संपत्ति के अधिग्रहण संबंधी नियम
भूमि अधिग्रहित करने के नियम
अधिग्रहित निजी संपत्ति के मुआवजे संबंधी कानून
भूमि अधिग्रहित करने के कारण 1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार
इसमें निम्नलिखित प्रश्नों को जन्म दिया:
निजी संपत्ति के अधिकार का दायरा क्या है?
मौलिक अधिकारों को सीमित प्रतिबंधित और समाप्त करने की संसद की शक्ति का दायरा क्या है?
संसद द्वारा संविधान संशोधन करने की शक्ति का दायरा क्या है?
क्या संसद नीति निदेशक तत्व को लागू करने के लिए ऐसे कानून बना सकती है जो मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करें?
केशवानंद भारती बनाम केरल सरकार मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
मुकदमे में न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान का एक मूल ढांचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढांचे से छेड़छाड़ नहीं कर सकता l
संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढांचे को नहीं बदला जा सकता है l
संपत्ति के अधिकार की विरासत मुद्दे के बारे में न्यायालय ने कहा कि यह मूल ढांचे का हिस्सा नहीं है l
इसलिए उस पर समुचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है l
न्यायालय ने यह निर्णय करने का अधिकार अपने पास रखा कि कोई मुद्दा मूल ढांचे का हिस्सा है या नहीं l
इससे पिछले 23 सालों से चला आ रहा विवाद समाप्त हो गया l यह भी सिद्ध हुआ संविधान की व्याख्या करने का अधिकार सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय के पास है l
राज्यसभा और लोकसभा: विधायिका को मिलाकर विधायिका बनती है l राज्यसभा को विधायिका का उच्च सदन और लोकसभा को विधायिका का निम्न सदन कहा जाता है l
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विधायिका
भारत में विधायिका सरकार का वह अंग है जो कानून बनाने उसे लागू करने का कार्य करता है l
इसके अलावा इसके पास और भी बहुत सारे कार्य होते हैं l
विधायिका एक ऐसा स्थान प्रदान करता है जहां पर बहस, बहिर्गमन, विरोध प्रदर्शन, सर्वसम्मति, सरोकार और सहयोग आदि को बढ़ावा मिलता है l
ये सभी लोकतंत्र के प्रमुख आधार हैं l जिसमें कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना प्रमुख कार्य है l
भारत में विधायिका दो सदनों से मिलकर बनती है l पहले सदन का नाम राज्यसभा और दूसरे सदन का नाम लोकसभा है l
प्रधानमंत्री और उसकी मंत्री परिषद विधायिका के मुखिया होते हैं l
भारत में भी मंत्रिमंडल नीति निर्माण की पहल करता है l शासन का एजेंडा तय करता है और उसे लागू करता है l
द्विसदनात्मक विधायिका
द्विसदनात्मक विधायिका
जब किसी विधायिका में दो सदन होते हैं तो उसे द्विसदनात्मक विधायिका कहते हैं l
भारतीय संसद के एक सदन को राज्यसभा दूसरे को लोकसभा कहते हैं l
संविधान ने राज्यों को एक सदनात्मक या द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित करने का विकल्प दिया है l
अब केवल चार राज्यों में ही द्विसदनात्मक विधायिका है l
जिनमें उत्तर प्रदेश बिहार कर्नाटक और महाराष्ट्र शामिल है l
जम्मू कश्मीर एक ऐसा राज्य था जिसके पास द्विसदनात्मक विधायिका थी l
परंतु जम्मू कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बनाने के कारण इसका राज्य का दर्जा छिन गया l
द्विसदनात्मक सदन विधायिका के लाभ
द्विसदनात्मक सदन के कई प्रकार से लाभ हैं l
पहला समाज के सभी वर्गों और देश के सभी क्षेत्रों को समुचित प्रतिनिधित्व मिल जाता है l
संसद के प्रत्येक निर्णय पर दूसरे सदन में भी पुनर्विचार हो जाता है l
प्रत्येक विधेयक और नीति पर दो बार विचार होता है l
हर मुद्दे को दो बार जांचने का मौका मिलता है l
विधायिका का उच्च सदन: राज्य सभा
इसे विधायिका का उच्च सदन कहा जाता है l राज्यसभा राज्यों के प्रतिनिधित्व करती है l इसका निर्वाचन अप्रत्यक्ष विधि से होता है l किसी राज्य के लोग राज्य की विधान सभा के सदस्यों को चुनते हैं l राज्य विधानसभा के निर्वाचित सदस्य राज्यसभा के सदस्यों को चुनते हैं l राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व चुनाव प्रणाली के द्वारा किया जाता है l विभिन्न क्षेत्रों से उनकी जनसंख्या के अनुपात में सदस्यों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है l
राज्यसभा की संरचना
राज्यसभा का वर्णन संविधान की अनुसूची 4 में दिया गया है l इसका गठन संविधान के अनुच्छेद 80 के तहत किया गया l राज्यसभा में कुल सदस्यों की संख्या अधिकतम 250 हो सकती है l जिसमें 238 निर्वाचित और 12 मनोनीत सदस्य होंगे l 12 मनोनीत सदस्य विज्ञान साहित्य खेल इत्यादि में ख्याति प्राप्त लोग होंगे l वर्तमान में राज्यसभा के सदस्यों की कुल संख्या 245 है l जिसमें 233 सदस्य निर्वाचित और 12 मनोनीत है l
राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्षो का होता है l
प्रत्येक 2 वर्ष पश्चात राज्यसभा के एक तिहाई(1/3) सदस्य अपना कार्यकाल पूरा कर लेते है l
राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्येक 2 वर्ष पर होता है l
राज्यसभा कभी भी भंग नहीं होती है l
उच्च सदन(राज्यसभा) की शक्तियाँ
सामान्य विधेयकों पर विचार कर उन्हें पारित करती हैं l
धन विधेयकों में संशोधन प्रस्तावित करती है l
संवैधानिक संशोधनों को पारित करती है l
प्रश्न पूछकर तथा संकल्प और प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है l
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी करती है l
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के साथ साथ सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटा सकती है l
उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही लाया जा सकता है l
यह संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दे सकती है l
लोकसभा
लोकसभा का गठन संविधान के अनुच्छेद 81 और 331 के अनुसार किया गया है l
यह संसद का निम्न सदन है l लोकसभा के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से होता है l लोकसभा में प्रधानमंत्री और उनकी मंत्रिपरिषद का गठन होता है l लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष के लिए होता है l प्रथम लोकसभा स्पीकर का नाम गणेश वासुदेव मावलंकर था l प्रथम लोकसभा चुनाव सन 1952 में हुए थे l
निम्न सदन की संरचना
लोकसभा में एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होता है l अध्यक्ष सभा की कार्यवाही को नियंत्रित करता है l लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव चुने हुए प्रतिनिधियों में से ही किया जाता है l लोकसभा के चुनाव में सार्वभौम वयस्क मताधिकार प्रणाली का उपयोग किया जाता है l
निम्न सदन में अधिकतम सदस्यों की संख्या 552 हो सकती है l राष्ट्रपति 2 एंग्लो इंडियन सदस्यों को मनोनीत कर सकता है l यदि उसे ऐसा लगता है कि लोकसभा में एंग्लो इंडियन का प्रतिनिधित्व कम है l प्रथम लोकसभा चुनाव के दौरान कुल सीटों की संख्या 418 थी l 1971 तक यह संख्या बढ़कर 518 हो गई l उसके बाद यह संख्या बढ़ते हुए 1989 में 543 हो गई l वर्तमान में इसमें 543 सदस्य हैं l
लोकसभा का कार्यकाल
लोकसभा का कार्यकाल 5 वर्ष का होता है l कभी कभी लोकसभा 5 वर्ष पूर्व भी भंग हो सकती है l यदि कोई चुनी हुई सरकार अपना बहुमत खो देती है तो सरकार गिर जाती है l
निम्न सदन(लोकसभा) की शक्तियाँ
संघ सूची और समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाती है l
धन विधेयक और सामान्य विधेयक को प्रस्तुत कर पारित करती है l
कर प्रस्तावों बजट और वार्षिक वित्तीय वक्तव्य को स्वीकृत देती है l
प्रश्न पूछ कर पूरक प्रश्न पूछ कर प्रस्ताव लाकर पर अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करती है l
संविधान में संशोधन करती है l
आपातकाल की घोषणा को स्वीकृति देती है l
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है l
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के साथ साथ राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पर महाभियोग लगाकर हटा सकती है l
समिति का गठन करती है और उनके प्रतिवेदन पर विचार करती है l
राज्यसभा और लोकसभा की शक्तियों में अन्तर
लोकसभा
संघ सूची और समवर्ती सूची के विषय पर लोकसभा कानून बनाती है l
कर प्रस्ताव बजट और वार्षिक वित्तीय वक्तव्य को स्वीकृति देती है l
लोकसभा में धन विधेयक और सामान विधायकों को प्रस्तुत और पारित किया जाता है l
प्रश्न पूछना पूरक प्रश्न पूछना प्रस्ताव लाकर और अविश्वास प्रस्ताव लाकर कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना लोकसभा का कार्य है l
आपातकाल की घोषणा को भी स्वीकृति लोकसभा ही देती है l
लोक सभा समिति और आयोगों का गठन करती है और उनके प्रतिवेदन ऊपर विचार भी करती है l
राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है तथा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटा सकती है l
राज्यसभा
सामान्य विधेयको पर राज्यसभा विचार कर उन्हें पारित करती है l
धन विधेयको में संशोधन प्रस्तावित कर सकती है l
संवैधानिक संशोधनों को पारित करती है l
प्रश्न पूछकर और संकल्प लेकर साथ ही प्रस्ताव प्रस्तुत करके कार्यपालिका पर नियंत्रण करती है l
राज्यसभा राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति के चुनाव में भागीदारी लेती है और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटा भी सकती हैं l
उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही लाया जा सकता है l
यह संसद को राज्य सूची के विषय पर कानून बनाने का अधिकार देती है और राज्य विषय के किसी भी विषय को संशोधित करने के लिए लोकसभा को राज्यसभा की मंजूरी आवश्यक है l
संसद (राज्यसभा और लोकसभा) कानून कैसे बनाती है?
समय की आवश्यकता और जनता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए समय-समय पर नए नए कानून और नियमों की आवश्यकता पड़ती है l इसी को ध्यान में रखते हुए संसद की समितियां अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करती हैं l विधेयक सदन में प्रस्तुत किया जाता है l प्रस्तावित कानून के प्रारूप को विधायक कहते हैं l विधेयक कोई भी प्रस्तुत कर सकता है l एक निजी सदस्य या फिर सरकार के द्वारा कोई मंत्री l समान्यत: कानून बनाने के लिए विधेयक सरकार के संबंधित विभाग के मंत्री ही पेश करते हैं l इस दौरान विधेयक को कई चरणों से गुजरना पड़ता है l वह चरण निम्न प्रकार से हैं:
विधेयको के प्रकार
विधेयक कई प्रकार के होते हैं
प्रस्तुतीकरण के आधार पर विधेयक:
सरकारी विधेयक : सरकार या सरकार के मंत्री द्वारा प्रस्तुत विधेयक l
निजी सदस्यों के विधेयक : संसद के किसी सदस्य के द्वारा प्रस्तुत विधेयक l
धन के आधार पर विधेयक को दो प्रकार में बांटा गया है:
गैर वित्त विधेयक – जो धन से सम्बंधित न हो l
वित्त विधेयक – धन से सम्बंधित विधेयक l
विधेयक की प्रकृति के आधार पर विधेयक को दो प्रकार से बांटा गया है:
सामान्य विधेयक : सामान्य कानून बनाने के लिए लाया गया विधेयक l
संविधान संशोधन विधेयक: संविधान में संशोधन करने के लिए लाया गया विधेयक l
राज्यसभा और लोकसभा में मुख्य अंतर
उपराष्ट्रपति पर महाभियोग केवल राज्यसभा में ही लगाया जा सकता है l अनुसूची 7 के राज्य सूची के विषय में कोई भी परिवर्तन करने के लिए राज्य सभा की अनुमति जरूरी है l राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है l
धन विधेयक केवल लोकसभा में ही लाया जा सकता है l सरकार और उसकी मंत्रिपरिषद केवल लोकसभा की लिए उत्तरदायी है l लोकसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के द्वारा होता है l इसलिए लोकसभा को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गयी है l
संसदीय विशेषाधिकार
विधायिका में कुछ भी कहने के बावजूद किसी सदस्य के विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती है l इसे संसदीय विशेषाधिकार कहते हैं l विधायिका के अध्यक्ष को संसदीय विशेषाधिकार के हनन के मामले में अंतिम निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त होती है l संसदीय विशेषाधिकार सदस्यों को इसलिए दिया गया है ताकि वह निर्भक और बिना सरकार के दबाव में आये अपनी बात रख सके l
कार्यपालिका और संसदीय नियंत्रण के साधन
संसदीय लोकतंत्र में विधायिका अनेक स्तरों पर कार्यपालिका की जवाबदेही को सुनिश्चित करने का काम करती है l यह काम नीति निर्माण कानून या नीति को लागू करने तथा कानून या नीति के लागू होने के बाद वाली अवस्था यानी किसी भी स्तर पर किया जा सकता है l विधायक का यह काम कई तरीकों से करती है:
बहस और चर्चा
कानून की स्वीकृति और स्वीकृत
वित्तीय नियंत्रण
अविश्वास प्रस्ताव
कार्यपालिका पर नियंत्रण रखने के साधन
प्रश्नकाल: संसद के अधिवेशन के समय प्रतिदिन प्रश्नकाल आता है l जिसमें मंत्रियों और सदस्यों के तीखे प्रश्नों का जवाब देना पड़ता है l दोनों सदनों में प्रश्नकाल का समय संसद के प्रारंभ होने के साथ ही प्रारंभ हो जाता है l प्रश्नकाल 11:00 से 12:00 बजे तक होता है l
शून्यकाल: इसमें सदस्य किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे को उठा तो सकते हैं पर मंत्री या सरकार जरूरी नहीं कि उस पर जवाब दें अन्यथा मंत्री उसका उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं है लोकहित के मामले में आधे घंटे की चर्चा और स्थगन प्रस्ताव भी लाने का विधान है प्रश्नकाल सरकार की कार्यपालिका और प्रशासक एजेंसी पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावी तरीका है l
राज्यसभा और लोकसभा की संसदीय समितियाँ
भारत में 1983 से संसद के स्थाई समितियों की प्रणाली विकसित की गई है l विभिन्न विभागों से संबंधित 24 समितियां है l संसदीय समितियों का गठन संविधान के अनुच्छेद 118(1) के तहत किया जाता हैl जुलाई 2004 के अनुसार कुल मिलाकर 24 स्थाई समितियां अब तक बनाई गई हैं l
समितियाँ दो प्रकार की होती हैं:
स्थाई समिति
तदर्थ समिति
स्थाई समितियाँ:
स्थाई समितियाँ नियमित और स्थाई होती हैं l इनका गठन संसद के नियमानुसार किया जाता है l समितियों का मुख्य कार्य संसद के बढ़ते कार्य को कम करने और उन पर विस्तार से चर्चा करने का होता है l संसद की समय की कमी को किसी विधेयक पर समितियों का समय मिलना बहुत महत्वपूर्ण होता है l
उदहारण :
लोक लेखा समिति
प्राक्कलन समिति
सरकारी उपक्रम समिति
स्थायी समितियों के कार्य
सरकार के मंत्रालय और विभागों के अनुदान की मांग पर विचार करना l
मंत्रालय और विभागो द्वारा अनुदान की मांग को सदन में प्रस्तुत करना l
मंत्रालयों की वार्षिक रिपोर्ट पर विचार करना और उनकी रिपोर्ट तैयार करना l
सदन में प्रस्तुत किए गए नीति संबंधी दस्तावेजों पर विचार करना और रिपोर्ट तैयार करना l
लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति को भेजे गए विधेयको की जांच पड़ताल करना और उनकी रिपोर्ट तैयार करना l
तदर्थ समितियाँ
तदर्थ समितियों का गठन किसी विशेष प्रयोजन के लिए किया जाता है l इसका गठन किसी विधेयक पर चर्चा करने के लिए अथवा किसी मामले पर वित्तीय और अन्य जांच करने के लिए किया जाता है l
संयुक्त संसदीय समितियाँ: संयुक्त संसदीय समितियों का भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है l इन समितियों में संसद के दोनों सदनों के सदस्य शामिल होते हैं l समितियों की इस व्यवस्था से ने संसद का कार्यभार हल्का कर दिया है l
दलबदल निरोधक कानून
दलबदल निरोधक कानून(दलबदल कानून) संविधान के 52वें संविधान संशोधन के द्वारा सन् 1985 में जोड़ा गया था l दल बदल निरोधक कानून(दलबदल कानून) का वर्णन संविधान की दसवीं अनुसूची में दिया गया है l
संविधान की दसवी अनुसूची को अन 1985 में जोड़ा गया था l दलबदल निरोधक कानून 91वें संविधान संशोधन द्वारा द्वारा संशोधित किया गया था l इसके अनुसार यदि यह सिद्ध हो जाए कि किसी सदस्य ने दल बदल किया है तो उसकी सदस्यता समाप्त हो जाती हैं l ऐसे सदस्य को किसी भी राजनीतिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है l
दल बदल क्या है?
किसी दल के नेतृत्व के आदेश के बावजूद सदन में उपस्थित न होना l
दल के निर्देशों के विपरीत सदन में मतदान करना l
स्वेच्छा से दल की सदस्यता से त्यागपत्र दे देना l
यदि किसी दल के एक तिहाई सदस्य हैं उपरोक्त तीनों शर्तों में से कोई भी शर्त में दोषी पाए जाते हैं तो उसे दलबदल नहीं माना जाएगा l
उपरोक्त शर्तों में से किसी एक में भी दोषी पाए जाने पर दल बदल निरोधक कानून लागू होता है l
दल बदल कानून का दुरूपयोग
अतीत का अनुभव यह बताता है कि दलबदल निरोधक कानून दलबदल को रोकने में सफल नहीं हुआ हैl
विभिन्न दलों ने नित नए उपायों के द्वारा दल बदल कानून का दुरुपयोग किया है l
ऐसी स्थिति में एक दल दूसरे दल के सदस्यों को तोड़ने के लिए उनसे इस्तीफा दिलवा देता है l
इस्तीफा देने के बाद ये सदस्य विरोधी दल के टिकट पर उपचुनाव में दोबारा चुनाव लड़ते है l
अचम्भा तब होता है जब ये दोबारा जीत कर सदन में पहुँच जाते है l
“राष्ट्रपति शक्तियाँ एवं कार्य ” के इस अंक में हम उनकी की नियुक्ति कैसे होती है जानेंगे l
राष्ट्रपति
भारत के संविधान में औपचारिक रूप से राष्ट्रपति शक्तियाँ और कार्य को कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति को दी गई हैं l परंतु शक्तियों का उपयोग केवल प्रधानमंत्री उसके मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है l उनको को देश का प्रथम नागरिक माना गया है l वह औपचारिक रूप से देश का अध्यक्ष भी होता है l
भारत में राष्ट्रपति संसदीय प्रणाली के अंतर्गत नियुक्त होता है l जिसमें वह राष्ट्र के नाम मात्र के अध्यक्ष हैं l उनकी वास्तविक शक्तियां प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के पास होती है l प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद जनता के लिए संसद के लिए जवाब देह हैं l भारत के राष्ट्रपति
राष्ट्रपति की
आवश्यकता क्यों?
भारत एक लोकतांत्रिक देश है l प्रधानमंत्री को प्रत्यक्ष रूप से चुने गए प्रतिनिधि चुनते है l प्रधानमंत्री की नियुक्ति और मंत्रिपरिषद की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है l चुनाव के पश्चात राजनीतिक अस्थिरता बनी रह सकती है और ऐसे में सरकार 5 वर्ष या उससे पहले ही गिर सकती है l ऐसे समय में एक स्थाई राष्ट्र प्रमुख की आवश्यकता होती है l जो राष्ट्र के लिए समय पर सही निर्णय ले सकें और नए प्रधानमंत्री और उसके मंत्री परिषद की नियुक्ति कर सकें l राष्ट्रपति की शक्तियाँ और कार्य का लाभ मुख्य रूप से प्रधानमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद करती है l
राष्ट्रपति और
उपराष्ट्रपति की योग्यता
राष्ट्रपति और
उपराष्ट्रपति बनने के लिए संविधान के अनुच्छेद 58 के अंतर्गत निम्नलिखित योग्यताएं
होनी चाहिए:
वह भारत का नागरिक हो l
उसकी आयु 35 वर्ष हो l
उसके पास लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यताएं हो l
वह किसी भी लाभ के पद पर कार्यरत ना हो l
वह व्यक्ति मानसिक रूप से स्वस्थ हो l
राष्ट्रपति का
चुनाव
भारत के राष्ट्रपति की
नियुक्ति संविधान के भाग 5 और अनुच्छेद 53 के अंतर्गत की जाती है l
भारत में
राष्ट्रपति का चुनाव समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली और एकल संक्रमणीय चुनाव
प्रणाली के द्वारा किया जाता है l भारत में
राष्ट्रपति का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता नहीं करती है l जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि जिसमें राज्यों की विधानसभा के सदस्य ,राज्य विधान परिषद के सदस्य, लोकसभा के सदस्य और
राज्यसभा के सदस्य शामिल होते हैं l
राष्ट्रपति के
अधिकार
राष्ट्रपति तीनों सेनाओं के अध्यक्ष होते हैं l
उनको कुछ विशेष शक्तियां प्राप्त होती हैं l
यदि कोई सरकार गैर संवैधानिक तरीके से काम कर रही है तो राष्ट्रपति के पास ही अधिकार है कि वह उसे बर्खास्त कर दे l
उसको देश में आपातकाल लगाने का अधिकार प्राप्त है l
राष्ट्रपति को औपचारिक रूप से संघ की कार्यपालिका की शक्ति प्राप्त है l
कार्यपालिका प्रमुख के
पद से राष्ट्रपति को हटाना : महाभियोग
संविधान के अनुसार उसको केवल एक ही प्रक्रिया के द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है l इस प्रक्रिया को महाभियोग कहा जाता है l महाभियोग की प्रक्रिया उन पर तब लागू होती है जब उसके खिलाफ संविधान का उल्लंघन दुर्व्यवहार या अक्षमता साबित हो जाएँ l
इसके अनुसार महाभियोग की प्रक्रिया प्रारंभ करने के लिए संसद के दोनों सदनों में से किसी एक सदन जैसे राज्यसभा लोकसभा में प्रस्ताव लाना होगा l दोनों सदनों में भी प्रस्ताव लाया जा सकता है परंतु जिस सभा में प्रस्ताव बाद में लाया गया है उसे रद्द माना जाता है l लोकसभा में प्रस्ताव लाने के लिए कम से कम 100 सदस्यों के हस्ताक्षर आवश्यक हैं जबकि राज्यसभा में प्रस्ताव लाने के लिए कम से कम 50 सदस्यों के हस्ताक्षर जरूरी हैं 1
दोष साबित होने के बाद
राष्ट्रपति पर जांच में
दोष साबित होने के पश्चात लोकसभा और राज्यसभा में वोटिंग होती है l वोटिंग में यदि यह
प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पास हो जाता है l तो राष्ट्रपति को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता है l इसी प्रक्रिया को
महाभियोग कहा जाता है l
वह मंत्रिपरिषद की सलाह को लौटा सकता है और उसे पुनर्विचार करने के लिए कह सकता है
उसके पास निषेध अधिकार होता है जिसके द्वारा वह किसी सलाह पर निर्णय देने में देरी कर सकता है या मना कर सकता है l इसे राष्ट्रपति की सेतो शक्ति कहते है l
उनके के पास विधेयक को कानून बनाने की अंतिम स्वीकृति का अधिकार होता है किसी भी विधायक को तब तक कानून नहीं माना जा सकता जब तक उस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर ना हो l
राष्ट्रपति बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है l यदि किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत ना मिला हो l गठबंधन सरकार बनने की संभावना हो l एक से अधिक दल बहुमत का दावा पेश करते हैं तो राष्ट्रपति के पास स्वविवेक का अधिकार है कि वह किस को प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करेगा l
उपराष्ट्रपति कार्य और शक्तियाँ
भारत में इनका का निर्वाचन उसी प्रकार से किया जाता है जिस प्रकार के राष्ट्रपति का निर्वाचन किया जाता है l उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्यों के विधान सभा के सदस्य भाग नहीं लेते हैं l
उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष होता है l यह आवश्यक नहीं उपराष्ट्रपति राज्यसभा का सदस्य हो l कोई भी वह नागरिक जो राज्यसभा की सदस्यता के लिए योग्यता रखता हो उपराष्ट्रपति बन सकता है l उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति(मृत्यु होने पर ) की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति के तौर पर तब तक कार्य करता है जब तक कि नए राष्ट्रपति का चुनाव नहीं हो जाता है l और अधिक कार्य और शक्तियाँ के लिए आप हमारे एनी पेज को विजिट कर सकते है l
कार्यपालिका कक्षा 11 नोट्स मिलिंगे l आपका स्वागत है !! यदि आपको नोट्स पसंद आये तो कृपया करके आप इसे शेयर जरूर करे आपकी बड़ी कृपा होगी !! Notes are strictly Prepared on the basis for upsc.
कार्यपालिका
सरकार का वह अंग है जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करने के लिए जिम्मेदार है l
कार्यपालिका के प्रकार :
सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत पर आधारित प्रणाली और एक व्यक्ति के सिद्धांत पर आधारित प्रणाली के आधार पर दो प्रकार की होती है l
सरकार के प्रमुख को आमतौर पर प्रधानमंत्री कहते हैं l
विधायिका में बहुमत वाले दल का नेता होता है l
विधायिका के प्रति जवाबदेह होता है l
देश का प्रमुख कोई भी हो सकता है एक राजा या राष्ट्रपति l
इटली, जापान, पुर्तगाल, इंग्लैंड और भारत l
अर्ध-अध्यक्षात्मक प्रणाली :
राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है l
प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है l
प्रधानमंत्री और उसका मंत्री परिषद विधायिका के प्रति जवाबदेह होता
है l
इसमें संवैधानिक राजतंत्र और संसदीय गणतंत्र की व्यवस्था होती है l
जैसे : श्री लंका, रूस और फ़्रांस l
एक व्यक्ति के नेतृत्व के सिद्धांत पर आधारित
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका :
राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है l
वहीं सरकार का भी प्रमुख होता है l
राष्ट्रपति का चुनाव आमतौर पर प्रत्यक्ष मतदान से होता है l
वह विधायिका के प्रति जवाबदेही नहीं होता है l
जैसे : अमेरिका और ब्राजील तथा अन्य लैटिन अमेरिकी देश l
भारत में कार्यपालिका के प्रकार : मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है
1. राजनीतिक कार्यपालिका
2. स्थाई कार्यपालिका
राजनीतिक कार्यपालिका
सरकार के प्रधान और उनके मंत्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं l कक्षा 11 नोट्स के लिए यहाँ क्लिक करे !!
जिसमें प्रधानमंत्री व मंत्री के
साथ-साथ अन्य सदस्य भी आते हैं l
स्थाई कार्यपालिका : कक्षा 11 नोट्स
जो लोग रोज रोज के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं l उन्हें स्थाई कार्यपालिका कहते हैं l स्थाई कार्यपालिका सरकार के रोजमर्रा के कार्यों में बहुत महत्वपूर्ण योगदान देती है l इसमें सिविल सेवक और राज्य के अन्य अधिकारी आते है l
कक्षा 11 नोट्स
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भारत का निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है l इसकी स्थापना संविधान के भाग 15 में की गई है l इसका विवरण अनुच्छेद 324 से 329 के में मिलता है l भारत में निर्वाचन आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को की गई l निर्वाचन आयोग क्या कार्य करता है? आइये जानते है इसकी संरचना और कार्यविधि l
आयोग संरचना
25 जनवरी 1950 से लेकर 15 अक्टूबर 1989 तक चुनाव आयोग में एक सदस्य था और यह आयोग एक सदस्य निकाय के रूप में कार्य करता था l 16 अक्टूबर 1989 से 1 जनवरी 1990 तक इसके दो अन्य सदस्यों की नियुक्ति की गई l तब से चुनाव आयोग में 3 सदस्य हो गए परंतु 2 जनवरी 1990 से 30 सितंबर 1993 तक यह एक सदस्यी निर्वाचन आयोग के रूप में कार्य करता रहा l 1 अक्टूबर 1993 से यह तीन सदस्यी निकाय हो गया l